By Shreya Shukla
स्त्री और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिनके विकास की बात एक के बिना करना मिथ्या सिद्ध होगा|लेकिन सवाल यह उठता है कि यदि ज़िन्दगी के दोनों पहियों को बराबर लाने के लिए कोई कदम उठाए जाते हैं तो एक पहिया अपने अहंकार को बरतते हुए चलना ही क्यों छोड़ देता है। सदियों से चले आ रहे इस पुरुषसत्तात्मक समाज में यदि बात स्त्री को साथ ले जाने की की जाए तो पुरुष अपने अहम के आगे खुद को हार जाता है।
कुछ विचलित सवाल
आपत्ति तब हुई जब लोगों ने भारतीय संविधान के अनुसार दुष्कर्म की परिभाषा को ही एक अलग मोड़ दे दिया। एक पुरुष ने बोला कि जबतक कोई स्त्री सिग्नल न दे, किसी पुरुष की हिम्मत नहीं हो सकती रेप जैसे कृत्य को अंजाम देने की| भारत दुष्कर्म के मामले में सबसे ऊपर है, यह तथ्य जानते हुए भी उन्होंने यह वक्तव्य प्रस्तुत किया। जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 375 के तहत किसी स्त्री की सहमति या इज़ाज़त के विपरीत किया गया हर शारीरिक दुष्कर्म रेप के अंतर्गत आएगा|
जिसका सीधा सा निष्कर्ष निकलता है कि यदि सिग्नल देने को आप सहमति मान लेते हो , तो जब स्त्री की सहमति है, मतलब संविधान के अनुसार वो रेप की परिभाषा में ही नहीं आया| जिसके अनुसार उस कृत्य को रेप की सूची में रखा ही नही जाएगा। लेकिन भारत तो रेप के मामले में सबसे ऊपर है! अर्थात बिना किसी सिग्नल, सहमति, इज़ाज़त के द्वारा किया गया दुष्कर्म।
दूसरा पहलू
वहीं दूसरी ओर महोदय यह भी कहते हैं कि यदि स्त्री रात में घर से बाहर मुँह बांध कर निकलेगी तो पुरुष तो जिज्ञासित होंगे ही, मेरा सीधा सा सवाल है कि पुरुष छोटे कपड़ों से आकर्षित हो जाते हैं, मुह बांध कर निकलने से भी आकर्षित हो जाते हैं, तो क्या पुरुष कमज़ोर है, इतने कमज़ोर की वे खुद ही अपने बस में नहीं है। लेकिन इससे तो पूरुषों की मर्दानगी में भी सवाल उठता है।
यह तथ्य रखने के बाद सामने से एक और तंज कसा गया कि स्त्री को साधारण रहना चाहिए, विषम बनने पर ही दुष्कर्म होता है, लेकिन उनका क्या जो साधारण स्त्रियों से भी आकर्षित हो जाते हैं?
यदि बात मुँह बांधने की करें तो आपने तेज़ाबी हमले के बारे में तो सुना ही होगा, जहाँ इंडिया टुडे के आंकड़ों के अनुसार भारत ने पांच वर्षों में लगभग स्त्रियों के विरुद्ध 1500 तेज़ाबी हमले पंजीकृत किये है, जिससे यह कहना बिल्कुल भी अनुचित नहीं होगा कि यदि स्त्री मुँह बांधकर निकलती है तो वो भी कुछ पिशाचों से बचने के लिए।
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क्या अभी भी तुम सामाजिक पिंजड़े में कैद हो
अन्य बिंदु
यदि आपको स्त्रियों को मिल रहे संविधान द्वारा उल्लेखित आरक्षण से आपत्ति है तो पूरुषों को मिल रहे समाज द्वारा उल्लेखित आरक्षण से क्यों नहीं?
हम नारीवाद की बात करते हैं इसका अर्थ यह नहीं कि हमें पूरुषों को कम आंकना है, इसका अर्थ है स्वतंत्रता, हर उस नागरिक की जो बाध्य है, जो सामाजिक पिंजड़े में कैद है, फ़िर चाहे वो आज़ादी किसी समुदाय विशेष की हो या फिर व्यक्ति विशेष की, और चूंकि आज स्त्रियों को आज़ादी पाने के लिए पग पग पर खुद को सिद्ध करना होता है इसलिए आज स्त्रियों के नारीवाद की बात होती है। यदि स्त्री कोई अपराध करती है तो उसे भी उसी संविधान, उन्हीं भारतीय दंड संहिता के अनुसार दंड दिया जाए जो पुरुष को मिलता है।
आज इक्कीसवीं सदी में होने के बावजूद भी पूरुषों को अवसर मिलते हैं और स्त्रियों को बनाने पड़ते हैं, आज भी पूरुषों को उनकी रुचि में कार्यरत होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और स्त्री को पग पग पर अपनी काबिलियत सिद्ध करनी पड़ती है। इन्हीं कुछ बिंदुओं में स्त्रियों को बराबरी चाहिए है।
निष्कर्ष
तो चलो हम मिलकर एक ऐसा सामज बनाऐं जहां की संस्कृति, संस्कार की हद का अनुमान मात्र स्त्रियों की भेषभूषा, स्त्रियों के कृत्यों से न लगाया जाए, बल्कि समाज के हर उस नागरिक से लगाया जाए जिसका समाज निर्माण में योगदान हो। विश्व का हर एक जीव स्वतंत्र होना चाहिए, इतना आज़ाद की वो अपने पंखों को खोलकर उस उड़ान को भर सके जिसका वो हकदार है।